Topic: राग आसावरी (Rag Aasavari)
Subject: मन तूं चलि रे सुख कै सागर (Mann tu chal re sukh ke sagar), मन तूं सुख के सागर बसि रे (Mann tu sukh ke sagar bas re)
Book: Sat Granth Sahib of Garib Das Ji
Page: 867
Explanation: Sant Rampal Ji Maharaj | Satlok Ashram
मन तूं चलि रे सुख कै सागर। जहां शब्द सिंध रतनागर।।टेक।। कोटि जनम जुग भरमत हो गये, कुछि नहीं हाथि लग्या रे। कूकर शूकर खर भया बौरे, कउआ हंस बुगा रे।।1।। कोटि जनम जुग राजा कीन्हा, मिटी न मन की आशा। भिछक हो करि दरि दरि हांढा, मिल्या न निरगुन रासा।।2।। इन्द्र कुबेर ईश की पदवी, ब्रह्मा बरुण धर्मराया। बिष्णुनाथ के पुर कूं पौंहच्या, बहुरि अपूठा आया।।3।। असंख जनम जुग मरते होय गये, जीवत क्यौं न मरे रे। द्वादश मधि महल मठ बौरे, बहुरि न देह धरै रे।।4।। दोजिख भिसति सबै तैं देखे, राजपाट के रसिया। त्रिलोकी सें त्रिपति नांहीं, यौह मन भोगी खसिया।।5।। सतगुरु मेलैं तो इच्छा मेटैं, पद मिलि पदह समाना। चलि हंसा उस देश पठाऊं, जहां आदि अमर असथांना।।6।। च्यारि मुक्ति जहां चंपी करि हैं, माया होय रहीं दासी। दास गरीब अभै पद परसै, मिले राम अबिनाशी।।7।।1।।
मन तूं सुख के सागर बसि रे। और न ऐसा जस रे।।टेक।। सर्ब सोनें की लंका होती, रावण से रनधीरं। एक पलक में राज बिराजी, जम के परे जंजीरं।।1।। उदै अस्त बिचि चक्र चलैं थे, ऐसी जन ठकुराई। चुणक रिषीसर कलप करी, जहां खोज न पाया राई।।2।। दुरजोधन से राजा होते, संगि इकोतर भाई। ग्यारह खूंहनि संग चलैं थी, देही गीध न खाई।।3।। साठि हजार सघड़ कै होते, कपल मुनीसर खाये। एकैं पुत्र उतानपाद कै, देव पद पाये।।4।। राम नाम प्रहलाद पढै थे, हिरनाकुस नहीं भाये। नरसिंघ रूप धरे नारायण, खंभ पारि कै आये।।5।। नामदेव नाम निरंजन राते, जा की छांनि छिवाई। एक पलक में देवल फेर्या, मिरतक गऊ जिवाई।।6।। काशीपुरी कबीरा होते, ताहि लखौ रे भाई। बन केशो बनिजारा उतर्या, नौ लखि बालदि आई।।7।। कनक जनेऊ कंध दिखाया, भक्ति करी रैदासा। दास गरीब कौंन गति पावै, मघहर मुक्ति बिलासा।।8।।2।।