Chaanak ka Ang | चाणक का अंग


चाणक का अंग | Chaanak ka Ang

Topic: चाणक का अंग (Chaanak ka Ang)
Book: Sat Granth Sahib of Garib Das Ji
Page: 992
Explanation: Sant Rampal Ji Maharaj | Satlok Ashram

चाणक का अंग | Chaanak ka Ang | Audio mp3

चाणक का अंग | Chaanak ka Ang

कबीर, जीव बिलंब्या जीव सौं, अलख न लखिया जाय। गोविन्द मिलै न झल बूझे, रही बुझाय बुझाय।।1।। 
कबीर, यहि उदर कै कारनै, जग जांच्यौं निसयाम। स्वामी पणौं जु सिर चढ्यौ, सर्यौ न एको काम।।2।।
कबीर, स्वामी हूंणा सोहरा, दोहरा हूंणा दास। गाडर आंनी ऊंन कूं, बांधी चरै कपास।।3।।
कबीर, स्वामी हूवा सीत का, पैसे कार पचास। राम नाम कांठ ै रह्या, करे शिष्यां की आश।।4।।
कबीर, त्रिषणा टोकणी, लिया फिरै सुभाय। राम नाम चीन्हैं नहीं, पीतल ही कै चाय।।5।।
कबीर, कलि का स्वामी लोभिया, मनसा धरी बधाय। देहीं पैसा ब्याज कूं, लेखा करता जाय।।6।।
कबीर, कलि का स्वामी लोभिया, पीतल धरी खटयाये। राज द्वारा यौं फिरै, ज्यौं हरिहाई गाय।।7।।
कबीर, कलिजुग आईया, मुनियर मिलै न कोय। लोभी लालची मसकरा, तिन को आदर होय।।8।।
कबीर, चारि बेद पण्डित पढ्या, हरि सौं किया न हेत। बाल कबीरा ले गया, पण्डित ढूंढै खंत।।9।।
कबीर, ब्राह्यण गुरु जगत का, कर्म धर्म का खाय। उलझि पुलझि करि मरि गया, चार्यौं बेदां मांहि।।10।।
कबीर, कलि का ब्राह्यण मसकरा, ताहि न दीजै दान। स्यौं कुटुंब नरकहिं चले, साथ लिया जजमांन।।11।।
कबीर, ब्राह्यण बूड़ा बापुड़ा, जनेऊ कै जोरि। लख चौरासी मांगि र्लइ , पारब्रह्म सौ तोड़ि।।2।।
कबीर, साकुट सण का जेवड़ा, भीग्यां तैं कठठाय। दोय अक्षर गुरु बाहिरा, बांध्या जमपुर जाय।।13।।
कबीर, साकुट की सभा, तूं जनि वैसैं जाय। एकहि बाड़ ै क्यौं बड़ ै, रोझ गदहड़ा गाय।।14।।
कबीर, साकुट थैं शूकर भला, सूचा राखैं गांव। बूड़ा साकुट बापड़ा, बैठ स भरणी नांव।।15।।
कबीर, साकुट ब्राह्मण जिनि मिलै, वैष्णौं मिलौ चंडाल। अंक माल दे भेटिये, मांनौं मिले गोपाल।।16।।
कबीर, पाड़ोसी सें रूसणां, तिल तिल सुख की हांनि। पण्डित भये सरावगी, पांनी पीवै छानि।।17।।
कबीर, ब्यास कथा कहैं, भीतरि भेद ै ं नांहि। औरौं कूं प्रमोधता, गये मुहर कां मांहिं।।18।।
कबीर, चतुर्राइ  सूवै पढी, र्सोइ  पंजर मांहि। फिरि प्रमोधै आंन कूं, आपन समझै नांहि।।19।।
कबीर, रास पर्राइ  राखतां, खाया घर का खेत। औरौं कूं प्रमोधतां, मुंहड़ ै पड़ि गया रेत।।20।।
कबीर, कहै पीर कूं, तूं समझावैं सब कोय। संसा पढेगा आप कूं, तौ और कहे को होय।।21।।
कबीर, तारा मंडल बैठि करि, चंद बड़ाई खाय। उदै भया जब सूरज का, स्यौं तारौं छिपि जाय।।22।।
कबीर, देखन के सबको भले, जैसे सीत के कोट। रबि कै उदै न दीस हीं, बंधै न जल की पोट।।23।।
कबीर, सुनत सुनावत दिन गये, उलझि न सुलझ्या मन। कहै कबीर चेत्या नहीं, अजहूं पहला दिन।।24।।
कबीर, तीरथ करि करि जगमुवा, ऊंड़ै पांनी न्हाय। रामहि राम ना जपा, काल घसीटे जाय।।25।।
कबीर, कांशी कांठै घर करैं, पीवै निरमल नीर। मुक्ति नहीं हरि नाम बिन, यौं कहै दास कबीर।।26।।
कबीर, इस संसार कूं, समझाऊं कै बार। पूंछ जु पकड़ ै भेड़ की, उतरया चाहै पार।।27।।
कबीर, पद गाया मन हरषिया, साखी कह्या आनंद। सो तत नाम न जांनिया, गल में पड़ि गया फंध।।28।।
कबीर, मन फूल्या फिरै, करता हूंर धरम। कोटि कर्म  ले चल्या, चेति न देखै भरम।।29।।
कबीर, कथनी कथी तो क्या भया, जे करणी ना ठहराय। कलांबूत के कोट ज्यों, देखत ही ढहि जाय।।30।।
कबीर, करता दीसै कीर तन, ऊंचा करि करि तूंड़। जांनैं बूझैं कुछ नहीं, यौंहीं अंधा रूण्ढ।।31।।