Topic: ज्ञान परिचय (Gyan Parichaya)
Book: Sat Granth Sahib of Garib Das Ji
Page: 524
Subject: Account of Sultan Ibrahim Adham
Explanation: Sant Rampal Ji Maharaj | Satlok Ashram
सतगुरु दीन दयाल दयाला नजरी हैं नजर निहाला।।1।। सतगुरु अगम भूमि सें आये। निर्भय पद निज नाम सुनाये।।2।। कर हंसा प्रतीति हमारी। सतगुरु त्यारै नर और नारी।।3।। कोई बेटा बाप रू भाई। कोई मात पिता कुल दाई।।4।। कोई काका कै नांय बोलै। कोई ताऊ सें होय ओल्हे।।5।। कोई मामा भाणिज भीना। जिसका तिस क्यूं नहीं दीन्हा।।6।। कोई दादा पोता नांती। चलतैं कोई संग न साथी।।7।। कोई फूफसरा ननदोई। यौ ज्यूं का त्यूं ही होई।।8।। कहीं पीतसरा पति धारी। कहीं तायसरा बुझ भारी।।9।। कहीं जेठ जिठानी खसमां। ये सबही हो गये भस्मां।।10।। कहीं भाभी देवर साली। इन नातौं बड़ घर घाली।।11।। कहीं बहिन भांनिजो फुफी। याह फूटि गई भ्रम कूपी।।12।। कहीं बेटी बहू भई रे। समझैं नहीं अकलि गई रे।।13।। ये हैं दोजिख के लपकू। देखो गूलरि के गपकू।।14।। यौंह नाता छारम छारा। बूडे़ दरिया बार न पारा।।15।। यौह चैरासी झक झोला। सब हो गये घोल मथोला।।16।। हम कारवान होय आये। महलौं पर ऊंट बताये।।17।। बोलैं पादशाह सुलताना। तूं रहता कहां दिवाना।।18।। दूजैं कासिद गवन किया रे। डेरा महल सराय लिया रे।।19।। जब हम महल सराय बर्ताइ । सुलतानी कूं तांवर्र आइ ।।20।। अरे तेरे बाप दादा पड़ पीढी। ये बसे सराय में गीदी।।21।। ऐसैं ही तूं चलि जाई। यौं हम महल सराय बताई।।22।। अरे र्कोइ कासिद कूं गहि ल्यावै। इस पंडित खांनें द्यावै।।23।। ऊठे पादशाह सुलताना। वहां कासिद गैब छिपाना।।24।। तीजै बांदी होय सेज बिर्छाइ । तन तीन कोरड़े र्खाइ ।।25।। तब आया अनहद हांसा। सुलतानी गहे खवासा।।26।। मैं एक घड़ी सेजां र्सोइ । तातैं मेरा योह हवाल र्होइ ।।27।। जो सोवैं दिबस रू राता। तिन का क्या हाल बिधाता।।28।। तब गैबी भये खवासा। सुलतानी हुये उदासा।।29।। यौह कौन छलावा र्भाइ । याका कछु भेद न र्पाइ ।।30।। चौथे जोगी भये हम जिन्दा। लिन्हें तीन कुत्ते गलि फंदा।।31।। दीन्ही हम सांकल डारी। सुलतानी चले बाग बाड़ी।।32।। बोले पातशाह सुलताना। कहां सें आये जिन्द दिवाना।।33।। ये तीन कुत्ते क्या कीजै। इनमें सें दोय हम कूं दीजै।।34।। अरे तेरे बाप दादा है र्भाइ । इन बड़ बदफैल कर्माइ ।।35।। यहां लोह लंगर शीश लर्गाइ । तब कुत्यौं धूम मचाई।।36।। अरे तेरे बाप दादा पड़ पीढी। तूं समझै क्यूं नहीं गीदी।।37।। अब तुम तख्त बैठकर भूली। तेरा मन चढने कूं शूली।।38।। जोगी जिन्दा गैब भया रे। हम ना कछु भेद लह्या रे।।39।। बोले पादशाह सुलताना। जहां खड़े अमीर दिवाना।।40।। येह च्यार चरित्र बीते। हम ना कछु भेद न लीते।।41।। वहां हम मार्या ज्ञान गिलोला। सुलतानी मुख नहीं बोला।।42।। तब लगे ज्ञान के बानां। छाड़ी बेगम माल खजाना।।43।। सुलतानी जोग लिया रे। सतगुरु उपदेश दिया रे।।44।। छाड्या ठारा लाख तुरा रे। जिस लागै माल बुरा रे।।45।। छाड़े गज गैंवर जल हौडा। अब भये बाट के रोड़ा।।46।। संग सोलह सहंस सुहेली। एक सें एक अधिक नवेली।।47।। छाडे़ हीरे हिरंबर लाला। सुलतानी मोटे ताला।।48।। जिन लोक पर्गंणा त्यागा। सुनि शब्द अनाहद लाग्या ।।49।। पगड़ी की कौपीन बनाई। शालौं की अलफी लाई।।50।। शीश किया मुंह कारा। सुलतानी तज्या बुखारा।।51।। गण गंधर्व इन्द्र लरजे। धन्य मात पिता जिन सिरजे।।52।। भया सप्तपुरी पर शाका। सुलतानी मारग बांका।।53।। जिन पांचैं पकड़ि पछाड्या इनका तो दे दिया बाड़ा।।54।। सुनि शब्द अनाहद रता। जहां काल कर्म नहीं जाता।।55।। नहीं कच्छ मच्छ कुरंभा। जहां धौल धरणि नहीं थंभा।।56।। नहीं चंद्र सूर जहां तारा। नहीं धौल धरणि गैंनारा।।57।। नहीं शेष महेश गणेश। नहीं गौरा शारद भेषा।।58।। जहां ब्रह्मा विष्णु न बानी। नहीं नारद शारद जानी।।59।। जहां नहीं रावण नहीं रामा। नहीं माया का बिश्रामा।।60।। जहां परसुराम नहीं पर्चा । नहीं बलि बावन की चर्चा ।।61।। नहीं कंस कान्ह कर्ता रा। नहीं गोपी ग्वाल पसारा।।62।। यौंह आँवन जान बखेड़ा। यहाँ कौंन बसावै खेड़ा।।63।। जहाँ नौ दशमा नहीं र्भाइ । दूजे कूं ठाहर नाँही।।64।। जहां नहीं आचार बिचारा। र्कोइ शालिग पूजनहारा।।65।। बेद कुराँन न पंडित काजी। जहाँ काल कर्म नहीं बाजी।।66।। नहीं हिन्दू मुसलमाना। कुछ राम न दुवा सलामा।।67। जहाँ पाती पान न पूजा। र्कोइ देव नहीं है दूजा।।68।। जहाँ देवल धाम न देही। चीन्ह्या े क्यूं ना शब्द सनेही ।।69।। नहीं पिण्ड प्राण जहां श्वासा। नहीं मेर कुमेर कैलासा।।70।। नहीं सत्ययुग द्वापर त्रेता। कहूं कलियुग कारण केता।।71।। यौह तो अंजन ज्ञान सफा रे। देखो दीदार नफा रे।।72।। निःबीज सत निरंजन लोई। जल थल में रमता सोई।।73।। निर्भय निरगुण बीना। सोई शब्दअतीतं चीन्हा।।74।। अडोल अबोल अनाथा। नहीं देख्या आवत जाता।।75।। हैं अगम अनाहद सिंधा। जोगी निरगुण निरबंधा।।76।। कछु वार पार नहीं थाहं। सतगुरु सब शाहनपति शाहं।।77।। उलटि पंथ खोज है मीना। सतगुरु कबीर भेद कहैं बीना।।78।। यौह सिंधु अथाह अनूपं। कछु ना छाया ना धूपं।।79।। जहां गगन धूनि दरबानी। जहां बाजैं सत्य सहिदानी ।।80।। सुलतान अधम जहां राता। तहां नहीं पांच तत का गाता।।81।। जहां निरगुण नूर दिवाला। कछु न घर है खाला।।82।। शीश चढाय पग धरिया। यौह सुलतानी सौदा करिया।।83।। सतगुरु जिन्दा जोग दिया रे। सुलतानी अपन किया रे।।84।। कहैं दास गरीब गुरु पूरा। सतगुरु मिले कबीरा।।85।।