Topic: अनभै निंदत का अंग (Anbhaya Nindat ka Ang)
Book: Sat Granth Sahib of Garib Das Ji
Page: 234
Explanation: Sant Rampal Ji Maharaj | Satlok Ashram
गरीब, अनभै निंदत सूर है, कुत्ता गदहा काग। चार जन्म जुग जुग धरै, निंदत बड़ा अभाग।।1।।
गरीब, निंदत भडु.वा भूत है, खाली करैं कपाल। संतौं की मानै नहीं, अपनाही घर घाल।।2।।
गरीब, निंदत भडु.वा भूत है, बोलै बचन कुटिल। ओह जानैं सरबरि करूं, नहिं संत सम तूल।।3।।
गरीब, निंदत भडु.वा भूत है, कहै और की और। संतौं का सीरी सही, परि चाल्या दखंनि पौर।।4।।
गरीब, निंदत भडु.वा भूत है, तड़कै खुड़कै आय। अनदेखी अज गैब की, कहै बनाय बनाय।।5।।
गरीब, निंदत भडु.वा भूत है, सीरी बस्या परोस। गोला जाति गुलाम की, जाकै पीर न गोस।।6।।
गरीब, निंदत भडु.वा भूत है, खोटी कहै कराल। डूबै नाव समूच सब, भरि निंद्या का माल।।7।।
गरीब, निंदत भडु.वा भूत है, कुंभी नर्क परेय। निंदा तो मीठी लगै, जैसा दही बरेय।।8।।
गरीब, निंदत भडु.वा भूत है, गुरुद्रोहीं का पूत। और नहीं कुछ आसरा, एक निंद्या ही की कूति।।9।।.....